ऐतबार उठाते हैं


किसी महफ़िल में तेरी बात जो कभी दिलदार उठाते हैं
कुछ बन्दे अशआर बहाते हैं तो कुछ तलवार उठाते हैं

घूमता पहिया है किस्मत का हुजूर देखो बस कल ही तक
आँख उठा ना सके थे जो, अब हाथ वो सरकार उठाते हैं

वो जब खुद भटकते फिर रहे प्रश्नों की भूल भुलैय्या में,
तब आप क्यों उलझे उलझे सवाल बार बार उठाते हैं

बाज़ार कितना और उठा, आदमी कितना और गिरा
बस यही तो जानने को हम सुबह अखबार उठाते हैं

कहाँ पर लेकर जाएगा ये दौर-ए-तैश-ए-आवाम देखो,
जहाँ चैन ओ अमन रखने को सब हथियार उठाते हैं

बुझी नफरत की आग तो हाथ तापना आखिर बंद हुआ,
अब उसी की राख अपने हाथ धोने को मेरे यार उठाते हैं

बरसों तलक रहकर मेरा हमराज़ आज कहा है उसने,
अब वक्त हो चला है पन्त, तुम्हारा ऐतबार उठाते हैं

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