जिद्द…

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नहीं तोड़ेगा कमर वो दुपहरी की धूप में 
घर भर का चूल्हा सुलगाने के लिए अब   
हम उस इंसान को ही जलाने पे तुले हैं


खोखले वादों से झूठे सपने दिखा और  
हालात के तम में भीड़ को गुमराह कर
हम सैलाब का संयम आजमाने पे तुले हैं

देवताओं के बुतों को मंदिरों में बिठाने
और मोम के पुतले महलों में सजाने  
हम रोज़ कुछ बस्तियां गिराने पे तुले हैं

विश्व भर को अहिंसक स्वयं को बता कर
दो शब्द करुणा के समझने के लिए अब 
हम खुद ही को असमर्थ बताने पे तुले हैं

सदा ही जयते जहाँभर की विषमता पर 
आज अपने ही सब अंतर द्वंदों के समक्ष
हम आखिर-कार घुटने टिकाने पे तुले हैं

तब राख से उठने की चाहत लेकर चले थे 
ये किस मुकाँ पे आ गए की आज देखो
हम खुद ही को ख़ाक में मिलाने पे तुले हैं

Photo Courtesy: Flickr